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कंकाल-अध्याय -७७

दोनों वकील मित्र हँसने लगे।

पाठकों को कुतूहल होगा कि बाथम न अदालत में उपस्थित होकर क्यों नहीं इस हत्या पर प्रकाश डाला। परन्तु वह नहीं चाहता था कि उस हत्या के अवसर पर उसका रहना तथा उक्त घटना से उसका सम्पर्क सब लोग जान लें। उसका हृदय घण्टी के भाग जाने से और भी लज्जित हो गया था। अब वह अपने को इस सम्बन्ध में बदनाम होने से बचाना चाहता था। वह प्रचारक बन गया था।

इधर आश्रम में लतिका, सरला, घण्टी और नन्दो के साथ यमुना भी रहने लगी, पर यमुना अधिकतर कृष्णशरण की सेवा में रहती। उसकी दिनचर्या बड़ी नियमित थी। वह चाची से भी नहीं बोलती और निरंजन उसके पास ही आने में संकुचित होता। भंडारीजी का तो साहस ही उसका सामना करने का न हुआ।

पाठक आश्चर्य करेंगे कि घटना-सूत्र तथा सम्बन्ध में इतने समीप के मनुष्य एक होकर भी चुपचाप कैसे रहे

लतिका और घण्टी का मनोमालिन्य न रहा, क्योंकि अब बाथम से दोनों का कोई सम्बन्ध न रहा। नन्दो चाची ने यमुना के साथ उपकार भी किया था और अन्याय भी। यमुना के हृदय में मंगल के व्यवहार की इतनी तीव्रता थी कि उसके सामने और किसी के अत्याचार प्रस्फुटित हो नहीं पाते। वह अपने दुःख-सुख में किसी को साझीदार बनाने की चेष्टा न करती, निंरजन सोचता-मैं बैरागी हूँ। मेरे शरीर से सम्बन्ध रखने वाले प्रत्येक परमाणुओं को मेरे दुष्कर्म के ताप से दग्ध होना विधाता का अमोध विधान है, यदि मैं कुछ भी कहती हूँ, तो मेरा ठिकाना नहीं, इसलिए जो हुआ, सो हुआ, अब इसमें चुप रह जाना ही अच्छा है। मंगल और यमुना आप ही अपना रहस्य खोलें, मुझे क्या पड़ी है।

इसी तरह से निरंजन, नन्दो और मंगल का मौन भय यमुना के अदृश्य अन्धकार का सृजन कर रहा था। मंगल का सार्वजनिक उत्साह यमुना के सामने अपराधी हो रहा था। वह अपने मन को सांत्वना देता कि इसमें मेरा क्या अन्याय है-जब उपयुक्त अवसर पर मैंने अपना अपराध स्वीकार करना चाहा, तभी तो यमुना ने मुझे वर्जित किया तथा अपना और मेरा पथ भिन्न-भिन्न कर दिया। इसके हृदय में विजय के प्रति इतनी सहानुभूति कि उसके लिए फाँसी पर चढ़ना स्वीकार! यमुना से अब मेरा कोई सम्बन्ध नहीं। वह उद्विग्न हो उठता। सरला दूर से उसके उद्विग्न मुख को देख रही थी। उसने पास आकर कहा, 'अहा, तुम इन दिनों अधिक परिश्रम करते-करते थक गये हो।'

'नहीं माता, सेवक को विश्राम कहाँ अभी तो आप लोगों के संघ-प्रवेश का उत्सव जब तक समाप्त नहीं हो जाता, हमको छुट्टी कहाँ।' सरला के हृदय में स्नेह का संचार देखकर मंगल का हृदय भी स्निग्ध हो चला, उसको बहुत दिनों पर इतने सहानुभूतिसूचक शब्द पुरस्कार में मिले थे।

मंगल इधर लगातार कई दिन धूप में परिश्रम करता रहा। आज उसकी आँखें लाल हो रही थीं। दालान में पड़ी चौकी पर जाकर लेट रहा। ज्वर का आतंक उसके ऊपर छा गया था। वह अपने मन में सोच रहा था कि बहुत दिन हुए बीमार पड़े-काम करके रोगी हो जाना भी एक विश्राम है, चलो कुछ दिन छुट्टी ही सही। फिर वह सोचता कि मुझे बीमार होने की आवश्यकता नहीं; एक घूँट पानी तक को कोई नहीं पूछेगा। न भाई, यह सुख दूर रहे। पर उसके अस्वीकार करने से क्या सुख न आते उसे ज्वर आ ही गया, वह एक कोने में पड़ा रहा।

निरंजन उत्सव की तैयारी में व्यस्त था। मंगल के रोगी हो जाने से सबका छक्का छूट गया। कृष्णशरण जी ने कहा, 'तब तक संघ के लोगों के उपदेश के लिए मैं राम-कथा कहूँगा और सर्वसाधारण के लिए प्रदर्शन तो जब मंगल स्वस्थ होगा, किया जायेगा।'

बहुत-से लोग बाहर से भी आ गये थे। संघ में बड़ी चहल-पहल थी; पर मंगल ज्वर में अचेत रहता। केवल सरला उसे देखती थी। आज तीसरा दिन था, ज्वर में तीव्र दाह था, अधिक वेदना से सिर में पीड़ा थी; लतिका ने कुछ समय के लिए छुट्टी देकर सरला को स्नान करने के लिए भेज दिया था। सबेरे की धूप जंगले के भीतर जा रही थी। उसके प्रकाश में मंगल की रक्तपूर्ण आँखें भीषण लाली से चमक उठतीं। मंगल ने कहा, 'गाला! लड़कियों की पढ़ाई पर...'

लतिका पास बैठी थी। उसने समझ लिया कि ज्वर की भीषणता में मंगल प्रलाप कर रहा है। वह घबरा उठी। सरला इतने में स्नान करके आ चुकी थी। लतिका ने प्रलाप की सूचना दी। सरला उसे वहीं रहने के लिए कहकर गोस्वामीजी के पास गयी। उसने कहा, 'महाराज! मंगल का ज्वर भयानक हो गया है। वह गाला का नाम लेकर चौंक उठता है।'

गोस्वामीजी कुछ चिन्तित हुए। कुछ विचारकर उन्होंने कहा, 'सरला, घबराने की कोई बात नहीं, मंगल शीघ्र अच्छा हो जायेगा। मैं गाला को बुलवाता हूँ।'

गोस्वामीजी की आज्ञा से एक छात्र उनका पत्र लेकर सीकरी गया। दूसरे दिन गाला उसके साथ आ गयी। यमुना ने उसे देखा। वह मंगल से दूर रहती। फिर भी न जाने क्यों उसका हृदय कचोट उठता; पर वह लाचार थी।

गाला और सरला कमर कसकर मंगल की सेवा करने लगीं। वैद्य ने देखकर कहा, 'अभी पाँच दिन में यह ज्वर उतरेगा। बीच में सावधानी की आवश्यकता है। कुछ चिन्ता नहीं।' यमुना सुन रही थी, वह कुछ निश्चिन्त हुई।

इधर संघ में बहुत-से बाहरी मनुष्य भी आ गये थे। उन लोगों के लिए गोस्वामीजी राम-कथा कहने लगे थे।

आज मंगल के ज्वर का वेग अत्यन्त भयानक था। गाला पास बैठी हुई मंगल के मुख पर पसीने की बूँदों को कपड़े से पोंछ रही थी। बार-बार प्यास से मंगल का मुँह सूखता था। वैद्यजी ने कहा था, 'आज की रात बीत जाने पर यह निश्चय ही अच्छा हो जायेगा। गाला की आँखों में बेबसी और निराशा नाच रही थी। सरला ने दूर से यह सब देखा। अभी रात आरम्भ हुई थी। अन्धकार ने संघ में लगे हुए विशाल वृक्षों पर अपना दुर्ग बना लिया था। सरला का मन व्यथित हो उठा। वह धीरे-धीरे एक बार कृष्ण की प्रतिमा के सम्मुख आयी। उसने प्रार्थना की। वही सरला, जिसने एक दिन कहा था-भगवान् के दुःख दान को आँचल पसारकर लूँगी-आज मंगल की प्राणभिक्षा के लिए आँचल पसारने लगी। यह वंगाल का गर्व था, जिसके पास कुछ बचा ही नहीं। वह किसकी रक्षा चाहती! सरला के पास तब क्या था, जो वह भगवान् के दुःख दान से हिचकती। हताश जीवन तो साहसिक बन ही जाता है; परन्तु आज उसे कथा सुनकर विश्वास हो गया कि विपत्ति में भगवान् सहायता के लिए अवतार लेते हैं, आते हैं भारतीयों के उद्धार के लिए। आह, मानव-हृदय की स्नेह-दुर्बलता कितना महत्त्व रखती है। यही तो उसके यांत्रिक जीवन की ऐसी शक्ति है। प्रतिमा निश्चल रही, तब भी उसका हृदय आशापूर्ण था। वह खोजने लगी-कोई मनुष्य मिलता, कोई देवता अमृत-पात्र मेरे हाथों में रख जाता। मंगल! मंगल! कहती हुई वह आश्रम के बाहर निकल पड़ी। उसे विश्वास था कि कोई दैवी सहायता मुझे अचानक अवश्य मिल जायेगी!

यदि मंगल जी उठता तो गाला कितना प्रसन्न होती-यही बड़बड़ाती हुई यमुना के तट की ओर बढ़ने लगी। अन्धकार में पथ दिखाई न देता; पर वह चली जा रही थी।

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